Posted in

इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले और इमरजेंसी लगने के बीच कांग्रेस में क्या चल रहा था

अगर इंदिरा गाँधी के ख़िलाफ़ इलाहाबाद हाइकोर्ट का फ़ैसला उस समय आया होता जब उनकी लोकप्रियता चरम पर थी, यानी बांग्लादेश की लड़ाई के तुरंत बाद, तो माहौल बिल्कुल अलग होता.

लेकिन 1971 के बाद अगले तीन सालों में देश का मूड पूरी तरह से बदल गया था.

बहुत कम लोग इलाहाबाद हाइकोर्ट के फ़ैसले के बाद इंदिरा गाँधी के पक्ष में सार्वजनिक तौर पर खड़े होने के लिए तैयार थे.

एक मशहूर ब्रिटिश पत्रकार जेम्स कैमरन ने टिप्पणी की थी, “ये तो उसी तरह हुआ कि सरकार के प्रमुख को ग़लत जगह गाड़ी पार्क करने के लिए इस्तीफ़ा देने के लिए कहा जाए.”

12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गाँधी का चुनाव रद्द कर दिया था.

छोड़कर सबसे अधिक पढ़ी गईं आगे बढ़ें

सबसे अधिक पढ़ी गईं

इलाहाबाद हाइकोर्ट का फ़ैसला आने के तुरंत बाद उनके मंत्रिमंडल के सदस्य उनके निवास 1 सफ़दरजंग रोड पहुंचना शुरू हो गए थे लेकिन इंदिरा गाँधी उस समय कुछ ही लोगों की सुन रही थीं.

जाने-माने पत्रकार इंदर मल्होत्रा ने अपनी किताब ‘इंदिरा गाँधी अ पर्सनल एंड पॉलिटिकल बायोग्राफ़ी’ में लिखा था, “12 जून, 1975 को एक समय ऐसा आया जब इंदिरा गाँधी ने इस्तीफ़ा देने का मन बना लिया था. वो अपनी जगह स्वर्ण सिंह को प्रधानमंत्री बनाने की सोच रही थीं.”

“उनकी सोच थी कि सुप्रीम कोर्ट में उनकी अपील स्वीकार होने और उनकी प्रतिष्ठा पुन: स्थापित होने के बाद वो दोबारा प्रधानमंत्री बन जाएंगीं, लेकिन वरिष्ठ मंत्री जगजीवन राम ने ये संकेत देने शुरू कर दिए कि वो इंदिरा के नेतृत्व में तो ख़ुशी से काम करने के लिए तैयार हैं, लेकिन अगर उन्होंने अस्थायी रूप से भी स्वर्ण सिंह को प्रधानमंत्री बनाने की सोची तो वो वरिष्ठता के आधार पर अपना दावा पेश करेंगे.”

इंदिरा ने इस्तीफ़ा देने का अपना फ़ैसला बदला

इंदिरा गाँधी को ये अंदाज़ा था कि अगर वो सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फ़ैसले से पहले त्यागपत्र दे देती हैं तो इसका जनता पर अच्छा असर पड़ेगा और अगर सुप्रीम कोर्ट उनके पक्ष में फ़ैसला सुनाता है तो वो शायद दोबारा सत्ता में भी आ सकती हैं.

इंदिरा गाँधी के सचिव रहे पीएन धर अपनी किताब ‘इंदिरा गाँधी, द इमरजेंसी एंड इंडियन डेमोक्रेसी’ में लिखते हैं, “अगर विपक्षी नेताओं, ख़ास तौर पर जेपी ने इस्तीफ़े के बारे में फ़ैसला लेने का विचार सिर्फ़ उनके ऊपर छोड़ा होता तो इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता था कि वो शायद इस्तीफ़ा दे ही देतीं. लेकिन वो हालात का फ़ायदा उठाना चाहते थे और दुनिया को ये दिखाना चाहते थे कि उन्होंने इंदिरा गाँधी को इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर किया है.”

“अपने सभी सार्वजनिक बयानों में उन्होंने इंदिरा गाँधी को निर्दयतापूर्वक नीचा दिखलाने की कोशिश की. निजी दुश्मनी की इस नुमाइश ने इंदिरा के जुझारूपन को सामने ला दिया और उनके इस फ़ैसले को बल मिला कि उन्हें हर क़ीमत पर ख़ुद का बचाव करना है.”

कांग्रेस के बड़े नेता चाहते थे इंदिरा का इस्तीफ़ा

वैसे ऊपरी तौर से कांग्रेस का हर बड़ा नेता इंदिरा के प्रति अपनी वफ़ादारी दिखा रहा था लेकिन हर एक को ये भी अंदाज़ा था कि प्रधानमंत्री का पद उनकी पहुंच में है.

कूमी कपूर अपनी किताब ‘द इमरजेंसी, अ पर्सनल हिस्ट्री’ में लिखती हैं, “सार्वजनिक रूप से इंदिरा का समर्थन करने के बावजूद बहुत से कांग्रेसी नेता आपस में फुसफुसाकर कहते थे कि इंदिरा को इस्तीफ़ा दे देना चाहिए. ऐसा विचार रखने वालों में शामिल थे जगजीवन राम, कर्ण सिंह. आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वेंगल राव और कर्नाटक के मुख्यमंत्री देवराज अर्स. लेकिन इनमें से किसी में हिम्मत नहीं थी कि वो ये बात इंदिरा गाँधी से सीधे कह पाते.”

कर्ण सिंह ने इस बारे में ज़रूर परोक्ष रूप से इंदिरा गाँधी को सलाह दी थी.

नीरजा चौधरी अपनी किताब ‘हाउ प्राइम मिनिस्टर्स डिसाइड’ में लिखती हैं कि इंदिरा गाँधी के कैबिनेट में स्वास्थ्य मंत्री रहे कर्ण सिंह ने उन्हें बताया था उन्होंने इंदिरा गाँधी को इस मामले में सुझाव दिया था.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *